हम हज़ारों साल गुलाम क्यूँ रहें?
इस सवाल के चाहे कितने भी कारण गिनायें जाए किंतु असली कारण हमारी भाग्यवादी सोच ही थी! ऐसी सोच के चलते ही हम गुलामी को अपनी तकदीर मान कर चुप चाप उसे स्वीकार कर लिया और गुलाम बनने को राज़ी हो गये, भाग्यवादी व्यक्ति हर चीज़ को स्वीकार करता चला जाता है और उस के साथ वैसे ही ढलता चला जाता है! समाज में व्यक्ति के लिए केवल दो रास्ते उपलब्ध हैं. एक तो यह की यदि जीवन ग़लत है तो जीवन को बदलो. दूसरा यह की ग़लत जीवन के साथ समझौता कर लो.
अपने देश के लोग अपनी भाग्यवादी सोच के चलते आमतौर पर दूसरा रास्ता ही चुनते हैं की जैसी भी स्थिति हो उसी के अनुसार खुद को ढाल लो . उस स्थिति को बालने का प्रयास बहुत कम ही लोग करते हैं यदि ग़रीब हैं तो ग़रीबी के साथ यह कह कर समझौता कर लेते हैं की भगवान जो दिया है हम तो उसी में खुश हैं हर व्यक्ति के भाग्या में जो भी लिखा है वही हो रहा है! कुछ अन्यथा नही. हम अपने पिछले जन्म के कर्मों का फल भोगने के लिए ही पैदा हुए हैं, इन्ही में बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपनी सफलताओं को बुरे ग्रहों का प्रभाव मान कर उन्हें पूजापाठ एंव दानदक्षिणा दे कर दूर करने के प्रयास में ही लगे रहते हैं, असफलता के कारणों के जान कर उन्हें दूर करने का प्रयास नही करते हैं, हमारी ऐसी सोच के कारण ही समाज में एक ऐसा परजीवी वर्ग बन गया है जो दानदक्षिणा प्राप्त कर के अपना जीवन मज़े से गुज़ार रहा है!
भाग्यवाद के कारण ही समाज में ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जो यह विश्वास करने लगा, "अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम, दास मलूका कह गये, सब के दाता राम", जहाँ तक मैं समझती हूँ भिकारियों की जितनी संख्या भारत में है उतनी अन्या कहीं भी नही है ऐसा केवल इसीलिए है की लोगों के मन में यह धारणा बैठ चुकी है कि भिक्षा देने से पुण्या प्राप्त होता है और स्वर्ग में जाने का रास्ता साफ हो जाता हैं, भारत के लोगों ने एक यह भी भ्रम पाल रखा है कि हमारा अतीत तो बहुत उज्ज्वल था किंतु सचाई यह है की जितनें अधिक सुखी हम आज हैं उतने सुखी हम कभी भी किसी भी युग में नही रहे!
चाहे वो सतयुग हो, चाहे द्वापर या त्रेता युग हो. कलियुग में ही लेगों ने जाना है कि सुख क्या होता है. हमारी आस्था कई प्रकार की ग़लत धारणाओं से बनी हुई हैं, दूसरे देशों के लोग नई नई खोजों से मानव आयु को बढ़ाने में लगे हुए हैं, रोगों को मिटाने में लगे हुए हैं और सफलता भी पा रहे हैं, किंतु भारत के लोग अभी इसी विश्वास में जी रहे हैं की आयु तो ईश्वर तय करता है, आज कई तरहा के भयंकार रोग या महामारियाँ नई नई दवाओं के कारण या तो समाप्त होती जा रही हैं या तो बहुत ही कम हो गयी हैं पहले इनके कारण लाखो लोग मार जाते थे, किंतु हम अभी भी यही राग अलापते जा रहे हैं, की ईश्वर ही बीमार करता है और वही बीमारी को दूर करता है
अभी भी बहुत से लोगों की सोच अवैज्ञानिक ही बनी हुई है, लोग धर्म पुस्तकों में कही गयी बातों के अलावा और किसी व्यक्ति की बुद्धि को उसके विचार को और विकास को स्वीकार करने को सहज ही तय्यार नही हैं!
संसार में सुख का सृजन धर्म नें नही केवल विज्ञान और टेक्नोलौजी ने पैदा किया है भारत में स्वर्ग एंव मोक्ष का जो प्रचार किया गया उसका मुख्या कारण यही था कि लोग बहुत दुखी थे और उन्हें दुखों से निकलनें का कोई रास्ता दिखाई नही देता था, हिंदुओं की धार्मिक पुस्तकें दुख को जीवन का केंद्र मान कर ही लिखी गयी जान पड़ती हैं
क्योंकि पुराने लोगों ने सुख का अनुभव बहुत ही कम किया है विज्ञान और टेक्नोलौजी ने ही मानव के लिए सुख भोगने के अवसर प्रदान किए नयी खोजों ने व्यक्ति के देखनेसूनने और चलने की क्षमता को कई गुना अधिक बड़ा दिया. बिजली का अविष्कार एव सूचनातंत्र के अविष्कारों से पूरे संसार को ही बदल दिया है. आज दुनिया मे कोई व्यक्ति दुखी है तो केवल अपनी कमियों एव अभाव के कारण ही है. सभी दुखों को दूर करने के साधन तो अब पैदा कर ही लिए गये हैं यदि कभी वर्षा का अभाव हो जाए तो पश्चिम के लोग कृत्रिम वर्षा करवा लेते हैं किंतु भारतीय लोग वर्षा ना होने पर हवन यगया करने बैठ जाते हैं. हज़ारों सालों से ऐसा ही करते चले आ रहे हैं. पश्चिम के लेगों ने विज्ञान एंव तकनीक की सहायता से अपनी औसत आयु बढ़ा ली है. रोगों पर नियंत्रण पा लिया है, किंतु हम अभी भी
भाग्या को लेकर बैठे हुए हैं.
जब सोमनाथ मंदिर पर गजनी ने आक्रमण किया तो वहाँ पाँच सौ पुजारी थे. उनकी यह मान्यता थी की जो ईश्वर सब की रक्षा करता है क्या वह उनकी या अपनी रक्षा नही करेगा. पुजारी प्रार्थना करते रहे और गजनी सबकुछ लूट कर ले गया. यह केवल अंधविश्वास है, कोई वैज्ञानिक चिंतन नही लोगों की भाग्यवादी सोच को बढ़ावा देने के लिए शासक वर्ग ने धर्म की आड़ में खूब प्रचार किया ताकि जनता उनके कुशासन एंव शोषण के खिलाफ विद्रोह की ना सोचे आज भी कई पत्रपत्रिकाएँ भविष्याफल छाप कर लोगों की ऐसी सोच को ही बढ़ावा दे रही हैं बहुत सी पत्रपत्रिकाओं में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक एंव वार्षिक भविष्यफल छापे जाते हैं!
मंत्रिमंडल के शपथग्रहण जैसे कार्य भी शुभ मुहूर्त निकलवा कर ही किए जाते हैं, जिससे ज्योतिषियों को खूब प्रोत्साहन मिलता है, मज़े की बात यह है की बुरे भाग्य को बालने के लिए भी रास्ते सुझाए गये है जिनमे दान-दक्षिणा मुख्य है कोई भी समझदार वयक्ति दान-दक्षिणा के उपाय को जानकार बड़ी आसानी से अनुमान लगा सकता कि यह केवल उन्हे ठगने का प्रयास भर है. दान-दक्षिणा में धन के अलावा सोना, चाँदी, हीरा, मोती, गेहूँ, चावल, गुड, चीनी, भूमि और गाय जैसी वस्तुओं को देने का प्रावधान किया गया. ग्रहों की शांति के लिए दो हज़ार से ले कर सवा लाख तक मंत्र का जाप करने को कहा जाता है ताकि धनी लोग समय के अभाव के कारण पंडित को ही उनके लिए मंत्र जपने को कह दें और बदले में मोटी दक्षिणा दें. बड़ी चालाकी से लोगों को ग्रह शांति के नाम पर ठगा जाता है और भयदोहन सिद्धांत का पूरा पूरा लाभ उठाया जाता है. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए की भारत में धर्म कभी नही रहा हैं. केवल दर्शिनिक विचारधारायें रही है
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