जीवन मंथन मे
नारी के हाथ
सदा रीते ही
रहे हैं आज
मै फ़ैसला नही
ले पा रही!
बच्चों के भविष्य,
परिवार के बारे
मे सोचती तो
नारी अस्तित्व के पहलू
कर्तव्य त्याग और समर्पण मुझे
रोकते! तभी कहीं
भीतर से एक
चिंगारी सी उठती,
पुरुष के अधिकारों
के प्रति, नारी
के शोषण के
विरुध क्या करूँ?
मै ही क्यूँ
घर की बच्चों
की परवाह करूँ
? जब राजेश का
कठिन समय था,
तब मैने अपना
कर्तव्य निभाया, अपने सुख
और इच्छाओं का
त्याग किया! अपने आपको
पूरे परिवार के
लिए समर्पित कर
दिया! मगर आज
मेरे साथ क्या
हो रहा है?
अवहेलना? नही-नही,
वो चिंगारी अंदर
से यों ही
नही उठी उस
ने मेरा संताप
कहीं करीब से
देखा है! जिसे
आज शांत न
किया तो सब
बर्बाद हो जाएगा!
मैने अपने अस्तित्व
को बचाया या
बर्बाद किया पता
नही! पर अब
मै अबला बनकर
नही रहना चाहती!
चाय का आख़िरी
घूँट अंदर सत्काया मन
मे कही एक
सुकून सा भी
था की अन्याय
सहन करने की
कायरता मैने नही
की अपने स्वाभिमान और
अधिकार पाने का
मुझे भी हक़
है! बचपन से
माँ को देखती
आई हूँ! सुबहा
से शाम तक
कोल्हू के बैल
की तरह घर
ग्रहस्ति मे जुटी
रहती, सब की
ज़रूरतों की पूर्ति
के लिए तत्पर
रहती, न खाने
का होश न
पहनने की परवाह!
शाम ढले पिताजी
घर आते और
शुरू हो जाते,
यह नही किया,
वो नही किया,
यह ऐसे नही
करना था, वो
वैसे नही करना
था! पता नही
सारा दिन घर
मे क्या किया
करती रहती है?
एक रोटी सब्ज़ी
का ही काम
है! उन्हे क्या
पता रोटी सब्ज़ी
के साथ कितने
काम जुड़ जाते
है? बच्चो की
बुज़ुर्गों की ज़रूरतों,
घर को संभालना, किसे कब
क्या चाहिए, सफाई
बर्तन इन सब
का ब्योरा माँ
ने कभी उन्हे
नही दिया चुपचाप
लगी रहती! शाम
को दोस्तों के
साथ पिताजी कभी
पीकर आ जाते तो
माँ ही क्या
दादाजी और बच्चे
भी सहम जाते,
क्यूंकी उनको पीने
का अधिकार है
और पैग लगा
कर तो बाकी
के अधिकार जताने
का बल भी
आ जाता, माँ फिर
भी सहमी सहमी सी
गरम-गरम खाना परोसती...
अपने या बच्चों
के लिए बचे
न बचे पिताजी
की थाली घर
के सभी लोगों
से श्रेष्ठतम होती,
ज़रा सी भी
कमी हुई तो
शुरू... ढंग से
खाना भी नही
खिला सकती, कैसी
अनपढ़ फूहड़ औरत
से पाला पड़ा
है यही सब
देखती हुई मै
बड़ी हुई थी, यह
अकेले मेरे घर
की बात नही
थी, पास पड़ोस,
रिश्तेदारी मध्य निम्न वर्ग मे तो अक्सर
औरत को घुट-घुट
कर जीते देखा था!
मन मे
विद्रोह की एक
चिंगारी सी सुलगती
और मेरे भीतर
एक आग भर
देती... मै घुटघुट
कर नही जाऊंगी,
मै पढ़ूंगी लिखूँगी
और पति के
कंधे से कंधा
मिला कर चलूंगी
! मै विद्रोह करके
जीना नही चाहती
थी बल्कि अपना
वजूद कायम कर
पुरुष की मनमानी
और प्रताड़ना के
लिए एक कवच
तय्यार करना चाहती
थी! पर शायद
मै ग़लत थी!
पुरुष के अधिकार छेत्र
मे औरत का
हस्तछेप , ताक-झाँक, अबला सबला
का मुकाबला करे!
उस बचपन की
चिंगारी ने यही
इच्छा बलवती की
कि मै माँ
की तरह अनपढ़
नही रहूंगी! पर
यह भी कहाँ
उस समय की
निम्न मध्यम वर्ग की
लड़की के वश
मे था पिताजी
एक मामूली क्लर्क
थे! घर मे
दादा दादी, हम
तीन भाई बहन
और माँ पिताजी
कुल 7 सदस्यों के
परिवार का एक
क्लर्क की पगार
का कैसे निर्वाह
हो सकता था,
पर हम कर
रहे थे ! पिताजी
के लिए दोनो
लड़कों को पढ़ाना
ज़रूरी था! क्यूंकी
वे घर के
वारिस थे और
मै पराई लड़की
इस मनमानी का
अधिकार भी पिताजी
के पास था
और इस अधिकार
को मानना माँ
का कर्तव्य था!
12वी पास करने
के बाद मुझे
घर बिठा दिया
गया! अगले कर्तव्य
की ट्रेनिंग घर
के कामकाज सिखाने
के लिए! मेरे
अंदर की चिंगारी
फिर दहकी और
मै घर पर
ही बी.ए.
की तैय्यरी करने
लगी! 3 साल मे
फर्स्ट क्लास मे बी.ए. कर
ली! बड़ा भाई
2 वर्ष कॉलेज मे लगा
कर तीसरे वर्ष
घर बैठ गया!
दूसरा बी.क़ाम.
मे 5 वर्ष लगाकर
पास हुआ और
एक फेक्टरी मे
मुनीमी करने लगा,
लड़के कुछ बिगड़ैल
भी थे! उसके
लिए भी माँ
ही ज़िम्मेदार, जैसी
माँ वैसे ही
बेटे माँ ने
बिगाड़ दिए यह
उलाहना भी माँ
को सुनना पड़ता!
कई बार सोचती
पिताजी भी क्या
करे. पैसा कमाना
भी कौन सा आसान
है और मै
मन मे सोच
लिया की मै
नौकरी करूँगी ताकि
अकेले पति पर
बोझ न पड़े!
जब पिताजी शराब
पी लेते और दोस्तों
मे बैठ कर
गपशप और ताश
मे समय बर्बाद
करते तो इस
अधिकार के प्रति
फिर चिंगारी उठती!
यह जन्म से
सुलगती चिंगारी शायद औरत
की चिता के
साथ ही शांत
होती है! मैने
बी.ए. कर लिया थी!
अब शादी के
लिए लड़का ढूँढा
जाने लगा ! पिताजी
ने अपनी सामर्थ्य
के हिसाब से
राजेश को ढूँढ
लिया ! अपने जैसा
सरकारी दफ़्तर मे क्लर्क
जिस ने 10+2 के
बाद टाइपिंग सीखी
और नौकरी मिल
गई!
मेरी बी.ए.
वो भी प्रथम
छेड़ी मे सरकारी
नौकरी के सामने
बेकार थी! पर
मुझे अंदर से
कहीं एक सुकून
सा मिला था
की चलो अनपढ़
फूहड़ तो सुनने
को नही मिलेगा
! मेरे कर्तव्य ने अंदर
से आवाज़ दी,
कहीं अपने को लाट
साहब ना समझना
, याद रखना तुम
औरत हो , पति
को ऐसा आभास
भी नही देना
की तुम उनसे
अधिक पढ़ी हो!
शादी धूम धाम
से हो गई
! सब ने सिर
आँखों पर मुझे
बिठाया ! नई-नई
शादी मे सब
सुहाना लगता है
! मगर मै कुछ
ही दिनो मे
जान गई कि
स्थिति यहाँ भी
मायके से कुछ
अलग नही! संयुक्त
परिवार,माँ-बाप,
2 जवान बहने, एक भाई,
राजेश ही बड़े
थे ! बाबूजी अब
रिटायर हो चुके
थे ! शादी के
3-4 महीने बाद मेरी
परीक्षा थी! घर
के काम से
फ़ुर्सत नही मिलती
! नन्दे भी पढ़
रही थी ! कोई
काम मे मदद नही
करता था! मैने
सोच लिया था
की जैसे तैसे
पेपर दूँगी! राजेशको
मेरी पढ़ाई से
कोई सरोकार न था
वो कहते थे कि
बी. ए. पास
हो कहीं न
कही क्लर्क की
नौकरी मिल जाय
तो तुम्हारे लिए
ठीक रहेगा ! मगर
मै जानती थी
कि मै आगे
और पढ़ कर
टीचिंग लाइन मे
जल्दी पदोन्नति कर
सकती थी! 3-4 महीने
मे ही मैने
महसूस किया, राजेश
हर बात मे
मुझ पर हावी
होने की कोशिश
करते! मेरे खाने,
पहनने, काम करने
यानी हर बात
मे उन का
दखल रहता , जिससे
मेरे अंदर की
उस चिंगारी को
हवा मिलती ! मैने
बी.एड. भी
कर ली अब
रोज़ टीचर के
लिए वॅकेन्सी देखने
लगी, फिर मेरा
निश्चय और विश्वास
रंग लाया तो
मुझे पास के
ही सरकारी स्कूल
मे ही नौकरी
मिल गई! जहाँ
सब को मेरी
आमदनी से खुशी
थी, वही घर
के काम की
भी समस्या थी!
अब बहू घर
मे हो तो
सास नन्दे काम
करती अच्छी नही
लगती! घर मे
किसी तरह की
कलह न हो
इस के लिए
मै भाग-भाग
कर काम करती,
बाबूजी कई बार
कहते भी बहू
सुबह इतनी भाग
दौड़ करती हो
कुछ काम इनके
लिए भी छोड़
जाया करो, और
मै इसी बात
पर खुश हो
जाती! ज़िंदगी चलने
लगी! 2-3 साल मे
दोनो नंदो की
शादी कर दी!
बाकी अगले भाग मे
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